Natasha

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राजा की रानी

किन्तु, इसी समय एक और प्रकार की आफत आ जुटी। केवल जल के छींटे ही मेरे शरीर में सुई की तरह छिद रहे हों सो बात नहीं- समस्त कपड़े और धोती के भीग जाने से और प्रचण्ड वायु से इतनी ठण्ड लगने लगी कि दाँत कटकट बजने लगे। खयाल आया, कि हाल जल में डूबने से तो किसी तरह बच भी सकता हूँ, किन्तु निमोनिया के हाथ से किस तरह परित्राण पाऊँगा? और, यह तो मैंने नि:संशय अनुभव किया कि इसी तरह यदि और भी कुछ देर बैठा रहूँगा तो परित्राण पाना सचमुच ही असम्भव हो जायेगा। इसलिए जिस तरह भी हो, इस स्थान का परित्याग करके किसी ऐसी जगह आश्रय लेना चाहिए जहाँ कि जल के छींटे बर्छी के फल की तरह शरीर में न चुभें। एक बार सोचा कि भेड़ों के पिंजरे में घुस जाऊँ तो कैसा हो! किन्तु वह भी कितना सुरक्षित है? उसके भीतर यदि खारे जल की धारा प्रवेश कर जाय तो ठीक 'मैं-मैं' करके न सही, पर 'माँ-माँ' करके अन्त में अवश्य ही इह-लीला समाप्त करनी पड़ेगी।

सिर्फ एक उपाय है। जहाज जब पार्श्व-परिवर्तन करता है तब भागने का कुछ मौका मिल जाता है; इसलिए, उस समय यदि कहीं जाकर घुस सकूँ तो शायद जान बच जाय। जो सोचा, वही किया। किन्तु पिंजरों पर से नीचे उतरकर, तीन बार दौड़कर, और तीन बार बैठकर, किसी तरह जब मैं सेकण्ड क्लास के केबिन के द्वार पर पहुँचा, तब देखा, द्वार बन्द है। लोहे के किवाड़ों ने हजार धक्का-मुक्की करने पर भी रास्ता नहीं दिया। इसलिए, वही रास्ता फिर उसी तरह तय करके मैं फर्स्ट क्लास के दरवाजे पर आ उपस्थित हुआ। इस दफे भाग्य देवता ने सुप्रसन्न होकर एक निराले कमरे में आश्रय दे दिया; और जरा भी दुविधा न करके मैं किवाड़ बन्द करके पलंग पर जा सोया।

रात के बारह बजे के भीतर तूफान तो थम गया, किन्तु समुद्र का गुस्सा दूसरे दिन भोर तक भी शान्त न हुआ।

मेरे सामान का और साथी मुसाफिरों का क्या हाल हुआ, और, खास तौर से सपत्नीक मिस्रीजी ने किस तरह रात बितई, यह जानने के लिए सुबह मैं नीचे उतर गया। कल नन्द मिस्री ने जरा दिल्लगी करते हुए कहा था कि “बाबूजी, साढ़े बत्तीस प्रकार के चबेने के समान हम लोग आपस में गड्डमड्ड हो गये थे और अभी ही कुछ देर हुई, सब कोई अपनी-अपनी जगह आकर बैठे हैं।” आज का गड्डमड्ड साढ़े बत्तीस प्रकार में गिना जा सकता है या नहीं, सो मुझे नहीं मालूम; किन्तु, इस समय तक कोई भी अपने निजी स्थान पर लौटकर न आने पाया था यह मैंने अपनी ऑंखों देखा।

उन लोगों की व्यवस्था देखने पर सचमुच ही रुलाई आने लगी। इन तीन-चार-सौ यात्रियों में से किसी के समर्थ रहने की बात तो दूर-शायद, अक्षत भी कोई नहीं बचा था।

औरतें सिल पर जिस तहर लोढ़े से मसाला बाँटती हैं, कल का साइक्लोन इन तीन-चार सौ लोगों का ठीक उसी तरह सारी रात मसाला बाँटता रहा। सारे माल-असबाब के सहित-बक्स-पेटियों आदि के सहित ये सब लोग रात-भर जहाज के इस किनारे से उस किनारे तक लुढ़कते फिरे हैं। वमन तथा अन्य दो क्रियाएँ इतनी अधिक की गयी हैं कि दुर्गन्ध के मारे खड़ा होना भी भारी हो रहा है और इस समय डॉक्टर बाबू जहाज के मेहतर और खलासियों को साथ लिये इन लोगों का 'पंकोद्धार' करने की व्यवस्था कर रहे हैं।

डॉक्टर बाबू ऊपर से नीचे तक मेरा बार-बार निरीक्षण करके शायद मुझे सेकण्ड क्लास का मुसाफिर समझ बैठे थे, फिर भी, अत्यन्त आश्चर्य के साथ बोले, “महाशय तो खूब ताजे दिख रहे हैं; जान पड़ता है कि आराम करने के लिए कोई हैमॉक (भ्उउवबा= जहाज पर रहनेवाला एक तरह का एक झुलन-खटोला) पा गये थे, क्यों न?”

“हैमॉक कहाँ से पाता महाशय, पाया था एक भेड़ों का पिंजरा। इसीलिए तरो-ताजा दीख रहा हूँ।”

डॉक्टर बाबू मुँह फाड़कर मेरी ओर ताकते रह गये। मैं बोला, “डॉक्टर बाबू, यह अधम भी इसी नरक-कुण्ड का यात्री है। किन्तु, कमजोर होने के सबब यहाँ घुस न सका- शुरु से ही डेक के ऊपर रहा आया। कल साइक्लोन की खबर पाकर कुछ देर भेड़ों के पिंजरों के ऊपर बैठकर, और रात को फर्स्ट क्लास के एक कमरे में अनधिकार प्रवेश करके आत्मरक्षा कर सका हूँ। क्या कहते हैं आप, मैंने कुछ अनुचित तो नहीं किया?”

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